Friday, June 17, 2011

गंगा जी को अविरल और निर्मल बनाने के लिए भागीरथ सामान स्वामी निगमानंद जी अंतिम साँस तक लड़ते रहे

स्वामी निगमानंद सरस्वती, मत्रि सदन, हरिद्वार में गंगा के तट पर पिछले चार महीने के से अनशन पर बैठे थे. उन्होंने गंगा में चल रहे अवैध खनन के खिलाफ उपवास रखा था और कसम खाया था की जब तक अवैध खनन बंद नहीं होगा वो अन्न या पानी नहीं लेंगे.मातृसदन ने पहली बार जब 1997 में स्टोन क्रेशरों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी थी तब हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी. लालच के साथ स्टोन क्रेशरों की भूख भी बढ़ने लगी और गंगा जी में जेसीबी मशीन भी उतर गयीं। गंगा जी के छाती में बीस-बीस फुट गहरे गड्ढे खोद दिए गए. जब मात्री सदन के संतों ने स्टोन क्रेशर मालिकों से बात करने की कोशिश की तो वे संतों को डराने और आतंकित करने पर ऊतारू हो गये। तभी संतों ने तय किया था कि गंगा के लिए अगर मरना भी परे तो कम है. और तब से उनकी लड़ाई खनन माफियाओं के खिलाफ चल रही थी। हमारे देश में जहाँ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे पर अनशन की पूरी खबर हम तक हर मिनट पहुँच रही थी, वहीँ एक गंगा भक्त की इस स्थिती को बताने बाला कोई नहीं था. गंगा जी के लिए निगमानंद जी का यह बलिदान इतिहास में एक अलग अध्याय लिख चुका है। लेकिन अफ़सोस इस बात से है की आज हम इतने निर्लज्ज एवं स्वार्थी हो गए हैं की बस खाने की टेबल पर टीवी देख कर सो जाते हैं.

गंगा जी को अविरल और निर्मल बनाने के लिए भागीरथ सामान स्वामी निगमानंद जी अंतिम साँस तक लड़ते रहे. 116 दिनों ताल अनवरत अनशनरत रहने का बाद स्वामी जी ने अंततः अपने प्राण की आहुति दे दी. रविवार को बाबा रामदेव का अनशन टुटा लेकिन सोमवार को निगामानान्दजी ने वहीँ अंतिम साँस ली. बाबा का अनशन तोडवाने के लिए पूरा तंत्र लग गया, लेकिन निगामनद जी की खबर लेनेवाला कोई नहीं था. अनशन तुडवाने के लिए कोई मामूली प्रयास भी नहीं हुए. सोमवार को स्वामी निगमानंद सरस्वती जी के निधन पर गंगा प्रेमी को अपार दुःख हुआ है.

संत निगमानंदजी का बलिदान बेकार नहीं गया। मातृसदन ने अंततः लड़ाई जीती, और 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि गंगा में चल रहे खनन को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है। हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से मात्री सदन के संतो द्वारा संघर्ष चल रहा था. अलग-अलग समय पर कई संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक चला । इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा था. पिछले दिनों मार्च में जब मैं मात्री सदन गया था, तब स्वामी जी के उपवास के 18 दिन हो चुके थे , फिर भी उन्होंने बड़े प्यार से मुझे खाना खिलाया था. उनका यह प्रेम मुझे हमेशा याद रहेगा. खुद तो भूखे, लेकिन सबको खाना पड़ोस रहे थे. हलाकि वो ज्यादा कुछ बोल नहीं रहे थे, और गंगा जी की पीड़ा उनके मुख मंडल पर साफ़ झलक रही थी.

स्वामी निगमानंद जी बिहार के दरभंगा जिले के लादारी गाँव के रहने वाले थे. 20 वर्ष की आयु में ही सन 1995 में घर छोड़ कर सत्य की खोज में हिमालय आ गए थे. सन्यास ग्रहण करने के पूर्व उनका नाम स्वरुपम कुमार गिरीश था. इनके पिता पूर्वी चंपारण में सिंचाई विभाग में SDO थे. युवा स्वरुपम, स्वामी शिवानन्द सरस्वती जी से सन्यास लेने के बाद निगमानंद हो गए. उनके दादा जो एक अवकाशप्राप्त शिक्षक हैं बताते हैं की, 1995 में घर छोड़ने के बाद उन्हें एक पत्र मिला था, जिसमे निगमानंद जी ने लिखा था की वो सत्य की खोज में जा रहे हैं. गंगा जी के लिए स्वामी निगमानंद जी ने 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन रखा था। उस समय उनके शरीर के कई अंग कमजोर हो गए थे. 19 फरवरी 2011 से शुरू स्वामी निगमानंद जी का आमरण अनशन 68वें दिन, 27 अप्रैल 2011 , को पुलिस गिरफ्तारी के साथ खत्म हुआ था, जब उत्तराखंड प्रशासन ने उनकी गिरफ्तारी की थी। उन्हें गिरफ्तार करके जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती किया गया। हालांकि 68 दिन के लंबे अनशन की वजह से उन्हें आंखों से दिखाई और सुनाई पड़ना कम हो गया फिर भी वे जागृत और सचेत थे और चिकित्सा सुविधाओं की वजह से स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो रहा था। लेकिन अचानक 2 मई 2011 को उनकी चेतना पूरी तरह से चली गयी थी और वे कोमा की स्थिति में चले गए थे । इसके बाद उन्हें देहरादून स्थित जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल में भेजा गया था।

मुझे बहुत गहरा दुःख हुआ है स्वामी जी के असमय चले जाने से. लेकिन इस से भी ज्यादा दुःख होता है हमारी मर रही संवेदना, मानवता और आत्मीयता से. अनशन पर बैठे स्वामी जी की किसी ने सुध नहीं ली और अब इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीती के समीकरण में कुछ स्वार्थो को भुनाया जा रहा है.

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